काबुल, 30 सितंबर : अफ़ग़ानिस्तान में सोमवार को अचानक डिजिटल ब्लैकआउट हो गया। पूरे देश में इंटरनेट और मोबाइल सेवाएँ एक साथ बंद कर दी गईं। तालिबान सरकार के इस फ़ैसले ने लाखों अफ़ग़ान नागरिकों को बाहरी दुनिया से पूरी तरह अलग-थलग कर दिया है। राजधानी काबुल, हेरात, मज़ार-ए-शरीफ़, उरुज़गान और कई प्रांतीय शहर अब पूरी तरह से ऑफ़लाइन हैं।
स्थानीय लोगों के अनुसार, पहले फ़ाइबर-ऑप्टिक इंटरनेट लाइनें काटी गईं। कुछ घंटों तक मोबाइल डेटा चालू रहा, लेकिन धीरे-धीरे मोबाइल टावर भी बंद होने लगे। अब न तो इंटरनेट काम कर रहा है और न ही फ़ोन कॉल हो पा रहे हैं।
तालिबान का आदेश
देश के इंटरनेट प्रदाताओं ने एक नोटिस जारी कर पुष्टि की है कि यह ब्लैकआउट तालिबान अधिकारियों के आदेश पर लगाया गया है। तालिबान ने पहले भी कुछ इलाकों में इंटरनेट बंद किया है, लेकिन तब मोबाइल सेवाएं सीमित थीं। इस बार, पहली बार, दोनों चैनल – इंटरनेट और मोबाइल – पूरी तरह से बंद कर दिए गए हैं।
आम जनता और व्यवसायों पर प्रभाव
इस डिजिटल ब्लैकआउट ने अफ़ग़ान नागरिकों के दैनिक जीवन को अस्त-व्यस्त कर दिया है। परिवार विदेश में रहने वाले अपने रिश्तेदारों से संपर्क नहीं कर पा रहे हैं। अंतर्राष्ट्रीय कॉल और संदेश पूरी तरह से अवरुद्ध हो गए हैं। व्यवसायों का कहना है कि वे विदेशी ग्राहकों और आपूर्तिकर्ताओं से कट गए हैं, जिससे उनके व्यापार को गंभीर खतरा पैदा हो गया है।
राहत संगठन चिंतित
अफ़ग़ानिस्तान पहले से ही एक मानवीय संकट का सामना कर रहा है। लाखों लोग गरीबी, भुखमरी और बेरोज़गारी से जूझ रहे हैं। राहत और मानवीय सहायता संगठनों (एनजीओ) के लिए ज़मीनी हालात का आकलन करना और भी मुश्किल हो गया है। कई अंतरराष्ट्रीय संगठन उन क्षेत्रों की पहचान नहीं कर पा रहे हैं जिन्हें तत्काल सहायता की ज़रूरत है। सहायता और दवाओं की आपूर्ति भी काफ़ी बाधित हुई है।
ब्लैकआउट क्यों लगाया गया?
तालिबान ने अभी तक इस मामले पर कोई आधिकारिक बयान जारी नहीं किया है। हालाँकि, विशेषज्ञों और स्थानीय पत्रकारों का मानना है कि यह कदम राजनीतिक नियंत्रण बनाए रखने के लिए उठाया गया है। तालिबान ने यह फैसला किसी भी बड़े विरोध प्रदर्शन या जनांदोलन को रोकने के लिए लिया है। इंटरनेट बंद करके, सरकार असहमति की आवाज़ों और रिपोर्टों को दबाने की कोशिश कर रही है।
अंतर्राष्ट्रीय मीडिया और मानवाधिकार संगठन तालिबान की कार्रवाई की कड़ी आलोचना कर सकते हैं। इससे संयुक्त राष्ट्र और पश्चिमी देशों के लिए एक अहम सवाल उठता है कि बिना किसी संवाद और पारदर्शिता के अफ़ग़ानिस्तान को सहायता कैसे प्रदान की जाए। यह कदम तालिबान की पहले से ही खराब छवि को और नुकसान पहुँचा सकता है।
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