नई दिल्ली, 12 दिसम्बर : सुप्रीम कोर्ट ने आज सभी उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों को अपने-अपने राज्यों में यूएपीए जैसे कानूनों के तहत दर्ज लंबित मामलों की जांच करने का निर्देश दिया, क्योंकि ये कानून आरोपी पर सबूत पेश करने का भार डालते हैं। जस्टिस संजय क्रोल और एन कोटिश्वर सिंह की बेंच ने राज्य विधि सेवा प्राधिकरण को यह निर्देश भी दिया कि प्रत्येक विचाराधीन कैदी को अपनी पसंद के वकील या कानूनी सहायता वकील द्वारा प्रतिनिधित्व के अधिकार के बारे में जागरूक किया जाए।
मुकदमे की कार्यवाही में तेजी लाई जाए
बेंच ने कहा कि जो लोग कानूनी सहायता का विकल्प चुनते हैं, उन्हें तुरंत उनके मामलों के लिए वकील नियुक्त किए जाएं ताकि सुनवाई जल्द से जल्द शुरू हो सके। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जब गैरकानूनी गतिविधियां रोकथाम अधिनियम (यूएपीए) के तहत मुकदमा चलाने का बोझ डाला जाता है, तो राज्य को यह सुनिश्चित करना होगा कि मुकदमे की कार्यवाही में तेजी लाई जाए।
बेंच ने कहा, “संवैधानिक लोकतंत्र केवल बोझ घोषित करके उसे उचित नहीं ठहराता; उसे यह सुनिश्चित करना होगा कि बोझ उठाने वाले लोग, यहां तक कि सबसे जघन्य अपराधों के आरोपी भी, उसे वहन करने में सक्षम हों। यदि राज्य अपनी पूरी ताकत के बावजूद भी दोषी साबित कर देता है, तो उसे ऐसे साधनों का सहारा लेना होगा जिनसे आरोपी खुद को निर्दोष साबित कर सकें।”
‘अधिकारों की रक्षा की जानी चाहिए’
नई दिल्ली: सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि किसी व्यक्ति के अधिकार हमेशा राष्ट्रीय हित के अधीन होते हैं और इस बात पर जोर दिया कि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत प्रदत्त अधिकारों की रक्षा की जानी चाहिए, लेकिन ऐसे मामलों में जहां देश की सुरक्षा या अखंडता का प्रश्न उठता है, उसे जमानत देने का एकमात्र आधार नहीं बनाया जा सकता। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि इस स्तर पर अभियुक्तों की स्वतंत्रता में हस्तक्षेप करना, विशेष रूप से तब जब उनके खिलाफ कोई अन्य सबूत न हो, उचित नहीं होगा। सीबीआई कोई ऐसी घटना प्रस्तुत नहीं कर पाई है जिससे यह साबित हो सके कि इस हस्तक्षेप का कोई सार्थक उद्देश्य था।
न्यायमूर्ति संजय करोल और न्यायमूर्ति एन कोटिश्वर सिंह की पीठ ने पश्चिम बंगाल के पश्चिम मिदनापुर जिले में 2010 के ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस दुर्घटना मामले में कुछ अभियुक्तों को दी गई जमानत के खिलाफ सीबीआई द्वारा दायर अपील की सुनवाई करते हुए ये टिप्पणियां कीं।
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