नई दिल्ली, 4 िसतंबर : उच्चतम न्यायालय ने एक ऐतिहासिक फैसले में कहा है कि अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम के तहत अग्रिम जमानत तभी दी जा सकती है जब प्रथम दृष्टया यह साबित हो जाए कि इस अधिनियम के तहत कोई अपराध नहीं किया गया है।
दरअसल, मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई, न्यायमूर्ति के.वी. चंद्रन और न्यायमूर्ति एन.वी. अंजारिया की पीठ ने यह फैसला सुनाया। आपको बता दें कि पीठ ने एक आरोपी को अग्रिम जमानत देने के बॉम्बे हाईकोर्ट के आदेश को रद्द कर दिया। आपको बता दें कि उस व्यक्ति ने सार्वजनिक रूप से उसकी जाति का उल्लेख करके अपीलकर्ता के साथ दुर्व्यवहार और अपमान किया था।
अदालत ने क्या कहा?
बार एंड बेंच की रिपोर्ट के अनुसार, बताया जा रहा है कि जस्टिस अंजारिया द्वारा लिखे गए फैसले में कहा गया है कि प्रथम दृष्टया मामला एससी/एसटी एक्ट की धारा 3 के तहत दंडनीय अपराधों के तत्वों के आधार पर दर्ज किया गया है। कहा गया है कि आरोपियों ने शिकायतकर्ता को लोहे की रॉड से पीटा और उसका घर जलाने की धमकी दी। शिकायतकर्ता की माँ और मौसी के साथ भी ऐसा ही व्यवहार किया गया। उन्हें जातिसूचक गालियाँ भी दीं गईं।
शिकायतकर्ता ने ये आरोप लगाए।
आरोप है कि आरोपी ने कथित तौर पर शिकायतकर्ता को उसकी जाति बताकर अपमानित किया। साथ ही, उसने घर जलाने की भी धमकी दी। इस दौरान, शिकायतकर्ता को अपमानित करने के स्पष्ट इरादे से ‘मंगतियानो’ शब्द का इस्तेमाल किया गया। यह अपमान इसलिए किया गया क्योंकि शिकायतकर्ता ने विधानसभा चुनाव में आरोपी की इच्छा के अनुसार एक खास उम्मीदवार को वोट नहीं दिया था।
सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि प्रथम दृष्टया मामला बनता है या नहीं, यह तय करते समय निचली अदालतें छोटी सुनवाई करके साक्ष्य के दायरे में नहीं आ सकतीं। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि प्रथम दृष्टया असंगति वह स्थिति है जहाँ न्यायालय केवल प्राथमिकी में दिए गए बयानों के आधार पर ही इस निष्कर्ष पर पहुँच सकता है। ऐसे मामलों में, प्राथमिकी में लगाए गए आरोप पूरी तरह से निर्णायक होंगे।
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