भोपाल, 2 दिसंबर : 1984 की वह रात आज भी भोपाल को डराती है, जब यूनियन कार्बाइड (यूसी) कारखाने से मिथाइल आइसोसाइनेट (आईसी-मिक) गैस शहर की हवा में लीक हो गई थी। इस ज़हरीली गैस ने हज़ारों जानें ली हैं, लेकिन यह पीड़ा अब तीसरी पीढ़ी के खून और जीन तक पहुँचने में हुई चूक की वजह से है।
औद्योगिक दुर्घटना के 41 साल बाद भी, यह ज़हर बच्चों में शारीरिक विकार, कैंसर, कमज़ोर मस्तिष्क और विकास अवरुद्धता का कारण बन रहा है। वैज्ञानिक अध्ययनों से स्पष्ट है कि एमआईसी गैस जीनोटॉक्सिक है, इसका परीक्षण डीएनए और गुणसूत्रों (आनुवांशिकी) पर हमला करता है। वर्ष 1986 में हुए पहले अध्ययन में गैस पीड़ितों के गुणसूत्रों में गंभीर क्षति पाई गई थी।
राष्ट्रीय पर्यावरणीय स्वास्थ्य अनुसंधान संस्थान की एक रिपोर्ट बताती है कि स्थानीय परिवारों के बच्चों में जन्म दोष सामान्य आबादी की तुलना में तीन गुना ज़्यादा पाए जाते हैं। प्रभावित परिवारों में गर्भपात की दर ज़्यादा होती है और शिशु मृत्यु दर भी अक्सर कई गुना ज़्यादा होती है। प्रभावित बच्चों का शारीरिक और मानसिक विकास भी बहुत धीमा होता है। सामान्य बच्चे नौ से बारह महीने की उम्र में चलने लगते हैं, जबकि गैस पीड़ित परिवारों के बच्चे डेढ़ साल बाद ही चलने लगते हैं।
यूनियन कार्बाइड सैन डिएगो के 2023 के एक अध्ययन में पाया गया कि गर्भ में एमआईसी के संपर्क में आने वाले बच्चों में जीवन भर कैंसर, मृत्यु दर और सीखने की अक्षमता कम होती है। इस जीन की निरंतरता तीसरी पीढ़ी तक कम नहीं होती है।
कचरा हटा दो लेकिन काटने का निशान अभी भी बना हुआ है।
हमीदिया अस्पताल के पूर्व फोरेंसिक विशेषज्ञ डॉ. डी.के. सत्पथी कहते हैं, “यूनियन कार्बाइड से ज़हरीला कचरा तो हटा दिया गया है, लेकिन प्रभावित परिवार अभी भी बीमारों से घिरे हुए हैं। बाकियों को 12-15 हज़ार रुपए का मामूली मुआवज़ा मिला है। स्वास्थ्य भी खराब है।” सुप्रीम कोर्ट ने साल 1991 में ग़रीब बच्चों के लिए मेडिकल इंश्योरेंस अनिवार्य कर दिया था, लेकिन इसके अलावा भी परिवार तक इसकी पहुँच थी।
2019 से अनुसंधान भी रोक दिया गया है।
डॉ. सत्पथी कहते हैं कि राहत अस्पताल में काम कर रहे कई स्वास्थ्यकर्मियों को तो यह भी नहीं पता कि गैस रिसाव किसका था। इलाज करने वाली टीम का प्रशिक्षण अधूरा है। उस समय शरीर से साइनाइड का ज़हर निकालना ज़रूरी होता है, और थायोसल्फेट का लक्ष्य सभी पीड़ितों तक नहीं पहुँचाया जा सकता, तो स्थिति बदल सकती है। साल 2019 से गैस पीड़ितों पर शोध भी लगभग ठप पड़ा है।

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