नई दिल्ली, 7 नवम्बर : जिस हवा में हम साँस लेते हैं, वही अब हमारी सेहत की सबसे बड़ी दुश्मन बनती जा रही है। कभी जीवन का आधार रही यह हवा अब एक अदृश्य ज़हर में बदल गई है। यह सिर्फ़ खांसी, साँस लेने में तकलीफ़ या एलर्जी तक ही सीमित नहीं है, बल्कि धीरे-धीरे कैंसर जैसी जानलेवा बीमारियों को भी जन्म दे रही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने बाहरी वायु प्रदूषण और उसके सूक्ष्म कणों को ग्रुप 1 कार्सिनोजेन्स की श्रेणी में रखा है, जिसका अर्थ है “कैंसर पैदा करने वाले प्रमुख पदार्थ”।
इसका मतलब है कि हवा में मौजूद ये ज़हरीले पदार्थ तंबाकू के धुएँ या एस्बेस्टस जितने ही खतरनाक हैं। राष्ट्रीय कैंसर जागरूकता दिवस के अवसर पर आइए डॉ. मीनू वालिया से समझते हैं कि हवा में मौजूद यह जहर किस तरह हमारे शरीर को अंदर से बीमार बना रहा है और हम इससे खुद को कैसे बचा सकते हैं।
ज़हर जो फेफड़ों में गहराई तक प्रवेश करता है
PM2.5 कण हवा में मौजूद सबसे खतरनाक तत्व हैं – ये इतने छोटे होते हैं कि शरीर की प्राकृतिक सुरक्षा प्रणाली भी इन्हें रोक नहीं पाती। ये कण साँस के ज़रिए सीधे फेफड़ों में पहुँचते हैं और वहाँ से रक्तप्रवाह में प्रवेश करते हैं।
इनमें अक्सर भारी धातुएँ, हाइड्रोकार्बन और अन्य रासायनिक विषाक्त पदार्थ होते हैं। शरीर में पहुँचने पर ये कोशिकाओं के डीएनए को नुकसान पहुँचाते हैं, जिससे कैंसर होता है। यही कारण है कि आजकल धूम्रपान न करने वालों में भी फेफड़ों का कैंसर बढ़ रहा है।
ऑक्सीडेटिव तनाव और सूजन के बीच संबंध
प्रदूषित हवा के लंबे समय तक संपर्क में रहने से शरीर में दीर्घकालिक सूजन आ जाती है। इस दौरान शरीर में रिएक्टिव ऑक्सीजन स्पीशीज़ (ROS) नामक पदार्थ बनते हैं, जो कोशिकाओं को नुकसान पहुँचाते हैं।
इस स्थिति को ऑक्सीडेटिव स्ट्रेस कहते हैं – जब शरीर की प्राकृतिक सुरक्षा प्रणाली कमज़ोर पड़ने लगती है। इससे कोशिकाएँ असामान्य रूप से बढ़ने लगती हैं, जिससे कैंसर के लिए अनुकूल वातावरण बनता है। यह प्रभाव सिर्फ़ फेफड़ों तक ही सीमित नहीं है; यह मूत्राशय और स्तन कैंसर जैसे मामलों में भी देखा गया है।
विष रक्तप्रवाह के माध्यम से पूरे शरीर में फैल जाता है।
वायु प्रदूषण का प्रभाव केवल फेफड़ों तक ही सीमित नहीं है। बहुत छोटे प्रदूषक कण रक्तप्रवाह में प्रवेश कर जाते हैं और यकृत, गुर्दे और मस्तिष्क जैसे अन्य अंगों तक पहुँच जाते हैं। हाल के शोध बताते हैं कि लंबे समय तक ऐसी हवा के संपर्क में रहने वाले लोगों में मस्तिष्क, बृहदान्त्र और मूत्र मार्ग के कैंसर का खतरा बढ़ जाता है। यह मुख्य रूप से पूरे शरीर में सूजन और डीएनए मरम्मत प्रणाली के खराब होने के कारण होता है।
प्रदूषण का जीन पर प्रभाव
विज्ञान की एक नई शाखा, एपिजेनेटिक्स, बताती है कि प्रदूषण हमारे जीन्स की संरचना को नहीं, बल्कि उनके व्यवहार को बदलता है। हवा में मौजूद रसायन डीएनए मिथाइलेशन की प्रक्रिया को प्रभावित करते हैं, जिससे कैंसर को रोकने वाले कुछ महत्वपूर्ण जीन “क्षय” हो जाते हैं, जबकि ट्यूमर के विकास को बढ़ावा देने वाले कुछ अन्य जीन “सक्रिय” हो जाते हैं। ये परिवर्तन अदृश्य होते हैं, लेकिन इनका प्रभाव गहरा होता है – यानी हवा हमारे आनुवंशिक स्वास्थ्य को भी प्रभावित कर सकती है।
शहरी हवा: “खामोश हत्यारा”
शहरों में प्रदूषण का असर और भी ज़्यादा होता है, क्योंकि हवा, शोर, तनाव, अस्वास्थ्यकर आहार और नींद की कमी जैसे अन्य कारकों के साथ मिलकर शरीर को कमज़ोर बनाती है। प्रमुख सड़कों, कारखानों या औद्योगिक क्षेत्रों के आसपास रहने वाले लोग लगातार कई पर्यावरणीय खतरों के संपर्क में रहते हैं। ये सभी मिलकर शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली को कमज़ोर करते हैं और कैंसर जैसी बीमारियों को बढ़ावा देते हैं।
छोटे-छोटे प्रयासों का बड़ा प्रभाव हो सकता है
बेशक, प्रदूषण को पूरी तरह से रोकना सरकारों और नीति निर्माताओं की जिम्मेदारी है, लेकिन व्यक्तिगत स्तर पर भी हम अपने जोखिम को कम करने के लिए कई कदम उठा सकते हैं:
घर के अंदर की हवा को स्वच्छ रखें: वायु शोधक यंत्र का प्रयोग करें और पेड़ लगाएं।
बाहर जाते समय सावधान रहें: धुएँ वाले या प्रदूषित दिनों में N95 या इससे बेहतर मास्क पहनें।
बुद्धिमानी से यात्रा करें: निजी वाहनों के बजाय सार्वजनिक परिवहन का उपयोग करें।
यह भी देखें : पीरियड्स में देरी क्यों होती है, आपको किन लक्षणों पर ध्यान देना चाहिए?

More Stories
बच्चों में बढ़ रही है हाई बीपी की समस्या, इसके कारण और बचाव के तरीके
इस चीज को गर्म पानी में मिला कर प्रतिदिन पीने से निखर जाएगी त्वचा
क्या आपको पता है की क्यों मंगलवार के दिन नहीं किया जाता कोई लेन-देन?